उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
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न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई
पहली आवाज़
हम तो ख़ुश थे कि चलो दिल का जुनूँ कुछ कम है
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें
कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे
यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं