कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे
तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा
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कहा था किस ने कि अहद-ए-वफ़ा करो उस से
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
कर गए कूच कहाँ
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'