इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए
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साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही
अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
बन-बास की एक शाम