इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
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ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की
जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा