जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे
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था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी
किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक
अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का
वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
सवाल
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी
रात भर हँसते हुए तारों ने
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें