जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरी तहरीर का
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बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़'
ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
तेरी बातें ही सुनाने आए
दिल का दुख जाना तो दिल का मसअला है पर हमें
कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे
मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें
तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल