इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम
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ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही
वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से
सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से