हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद
आज वो आया तो मुझ को अपना घर अच्छा लगा
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रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
हच-हाईकर
कर गए कूच कहाँ
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
इंतिसाब
नामा-ए-जानाँ
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा
'फ़राज़' तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो