हँसी-ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है
ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू
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किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है
चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
रात भर हँसते हुए तारों ने
बन-बास की एक शाम
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता