हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता
मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए
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उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया
'फ़राज़' तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले
मुहासरा
पहली आवाज़
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
सो देख कर तिरे रुख़्सार ओ लब यक़ीं आया