हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे
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करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़'
सारा शहर बिलकता है
पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया
नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए
काली दीवार