कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है
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तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है
इंतिसाब
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
तेरी बातें ही सुनाने आए
सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं
चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
तअ'ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ