न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए
फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए
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रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं
मिसाल-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है
सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ
मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
कहा था किस ने कि अहद-ए-वफ़ा करो उस से
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
पहली आवाज़