सब पे खुलने की हमें ही आरज़ू शायद न थी
एक दो होंगे कि हम जिन पर फ़क़ीराना खुले
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दिन से बिछड़ी हुई बारात लिए फिरती है
जब से इक चाँद की चाहत में सितारा हुआ हूँ
अपना साया तो मैं दरिया में बहा आया था
ज़ख़्म गिनता हूँ शब-ए-हिज्र में और सोचता हूँ
ज़िंदगी! तुझ सा मुनाफ़िक़ भी कोई क्या होगा
सामने फिर मिरे अपने हैं सो मैं जानता हूँ
पर्दा-ए-महमिल उठे तो राज़-ए-वीराना खुले
ये जो इक सैल-ए-फ़ना है मिरे पीछे पीछे