कुर्रा-ए-हिज्र से होना है नुमूदार मुझे
मैं तिरे इश्क़ का इंकार उठाने लगा हूँ
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चंद पेड़ों को ही मजनूँ की दुआ होती है
रास आएगी मोहब्बत उस को
तू ज़ियादा में से बाहर नहीं आया करता
तेरे हिस्से के भी सदमात उठा लेता हूँ
तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
मिट्टी से बग़ावत न बग़ावत से गुरेज़ाँ
इक पल का तवक़्क़ुफ़ भी गिराँ-बार है तुझ पर
दाना-ए-गंदुम-ए-बेदार उठाने लगा हूँ
तू ने ऐ इश्क़ ये सोचा कि तिरा क्या होगा
मिरी वफ़ा है मिरे मुँह पे हाथ रक्खे हुए
ज़िंदा रहने का तक़ाज़ा नहीं छोड़ा जाता
पाँव बाँधे हैं वफ़ा से जब ने