रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
रोज़ जीने के भी सामान निकल आते हैं
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(758) Peoples Rate This
हर ऐसे-वैसे से क़ुफ़्ल-ए-क़फ़स नहीं खुलता
रात अभी आधी गुज़री है
ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ
एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
गुज़रते वक़्त को बुनियाद करने वाला हूँ
इक शहर था इक बाग़ था
मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
मेरी तन्हाई के एजाज़ में शामिल है वही
मैं अपना कार-ए-वफ़ा आज़माऊँगा फिर भी
आवारा भटकता रहा पैग़ाम किसी का
क़िस्सा-ए-ख़्वाब हूँ हासिल नहीं कोई मेरा
मैं अल्बम के वरक़ जब भी उलटता हूँ