मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
वो ज़ीना ज़ीना उतरने वाली शबीह जब मुझ में जागती है
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एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
हयात-ए-सोख़्ता-सामाँ इक इस्तिअा'रा-ए-शाम
आँसुओं के रतजगों से
एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
यहाँ के रंग बड़े दिल-पज़ीर हुए हैं
क़िस्सा-ए-ख़्वाब हूँ हासिल नहीं कोई मेरा
जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
ताबिश ये भला कौन सी रुत आई है जानी
हवेली मौत की दहलीज़ पर
प्यास बढ़ती हुई ता-हद्द-ए-नज़र पानी था
हर ऐसे-वैसे से क़ुफ़्ल-ए-क़फ़स नहीं खुलता
पहले तो शहर ऐसा न था