एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
चाहने वाले बहुत अपने पुराने थे उधर
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अदम से परे
पहले तो शहर ऐसा न था
बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
ताबिश ये भला कौन सी रुत आई है जानी
वही जुनूँ की सोख़्ता-जानी वही फ़ुसूँ अफ़्सानों का
घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है
आँसुओं के रतजगों से
ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए
इसी क़दर है हयात ओ अजल के बीच का फ़र्क़
मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
पुरानी फ़ाइलों में गुनगुनाती शाम
जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से