एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
एक मौसम था मिरे सर पे जो तूफ़ानी था
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रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
पहले तो शहर ऐसा न था
एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
इक शहर था इक बाग़ था
गुज़रते वक़्त को बुनियाद करने वाला हूँ
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है
यहाँ के रंग बड़े दिल-पज़ीर हुए हैं
हयात-ए-सोख़्ता-सामाँ इक इस्तिअा'रा-ए-शाम
मुझ को ना-कर्दा गुनह का मो'तरिफ़ होना पड़ा
मेरी तन्हाई के एजाज़ में शामिल है वही