इक ज़रा चैन भी लेते नहीं 'ताबिश'-साहब
मुल्क-ए-ग़म से नए फ़रमान निकल आते हैं
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प्यास बढ़ती हुई ता-हद्द-ए-नज़र पानी था
हयात-ए-सोख़्ता-सामाँ इक इस्तिअा'रा-ए-शाम
हर ऐसे-वैसे से क़ुफ़्ल-ए-क़फ़स नहीं खुलता
मैं अल्बम के वरक़ जब भी उलटता हूँ
मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
पुरानी फ़ाइलों में गुनगुनाती शाम
हवेली मौत की दहलीज़ पर
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
मेरी तन्हाई के एजाज़ में शामिल है वही
जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
बज़्म ख़ाली नहीं मेहमान निकल आते हैं