है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
तकलीफ़ किसी के लिए आराम किसी का
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क़िस्सा-ए-ख़्वाब हूँ हासिल नहीं कोई मेरा
एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
हयात-ए-सोख़्ता-सामाँ इक इस्तिअा'रा-ए-शाम
इक शहर था इक बाग़ था
प्यास बढ़ती हुई ता-हद्द-ए-नज़र पानी था
आज भी उस के मिरे बीच है दुनिया हाइल
ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ
कैसे अफ़्सूँ थे वहाँ कैसे फ़साने थे उधर
घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है
ताबिश ये भला कौन सी रुत आई है जानी
पुरानी फ़ाइलों में गुनगुनाती शाम
बदलने का कोई मौसम नहीं होता