हवेली मौत की दहलीज़ पर

हवेली मौत की दहलीज़ पर कब से खड़ी है

चाँद ने बुझ कर

सितारों ने उदासी ओढ़ कर

फूलों ने ख़ुश्बू का लिबादा फेंक कर

माहौल पस-अज़-मर्ग का तय्यार कर डाला है

बस इक आख़िरी हिचकी के सब हैं मुंतज़िर

सारे अइज़्ज़ा-ओ-अक़ारिब नौहा-ख़्वानी के लिए

तय्यार बैठे हैं

हवेली मौत की दहलीज़ पर कब से खड़ी है

उस के मरने में अगर कुछ देर बाक़ी है

तो चल कर दूसरे कुछ काम कर डालें

सदी का दूसरा अश्रा

नए आग़ाज़ के पुल पर खड़ा हो कर

समुंदर की बिफरती मौज को ललकारता है

वक़्त के ग़व्वास

सीपों में गुहर खंगालते हैं

इब्न-ए-आदम के क़बीले

रूह-ए-मश्रिक की पुरानी घाटियों से

इक इक कर के निकलते हैं

बुख़ारा ओ समरक़ंद उज़बेकिस्तान ओ हिरात

सब पे छाई है अँधेरी सख़्त रात

लखनऊ और अकबराबाद अपनी शौकत खो रहे हैं

मर्हबा शाम-ए-ग़रीबाँ

अब तो चल कर दूसरे कुछ काम कर डालें

हवेली मौत की दहलीज़ पर कब से खड़ी है

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