पहले तो शहर ऐसा न था

इक बार चल कर देख लें

शायद गुज़िश्ता मौसमों का कोई इक

धुँदला निशाँ मिल जाए

और फिर से फ़ज़ा शादाब हो

उजड़ा हुआ इक ख़्वाब हो

तस्वीर में कुछ गर्द-बाद-ए-बाक़ियात-ए-मिम्बर-ओ-मेहराब हो

इक बार चल कर देख लें

फिर बंद होते शहर के बाज़ार को

झांकें ज़रा

उजड़ी दुकानों में

कुलाह ओ जुब्बा ओ दस्तार को

इक शहर-ए-ताज़ा-कार को कुछ देर भूलें

और उस को सिलवटों में

ढूँडें इक खोई हुई तस्वीर को

तस्वीर में कुछ बाक़ियात-ए-मिम्बर-ओ-मेहराब हैं

कुछ जलवा-हा-ए-अह्द-ए-आलम-ताब हैं

वो लाश जो कुचली गई

वो ख़्वाब जो रौंदे गए

वो नाम जो भूले गए

इन सिलवटों में दफ़्न

कितनी बरकतों के राज़ हैं

इक बार चल कर देख लें

पहले तो शहर ऐसा न था

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