बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए
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क़िस्सा-ए-ख़्वाब हूँ हासिल नहीं कोई मेरा
बदलने का कोई मौसम नहीं होता
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए
रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
यहाँ के रंग बड़े दिल-पज़ीर हुए हैं
आँसुओं के रतजगों से
हयात-ए-सोख़्ता-सामाँ इक इस्तिअा'रा-ए-शाम
हवेली मौत की दहलीज़ पर
अदम से परे
रात अभी आधी गुज़री है
पुरानी फ़ाइलों में गुनगुनाती शाम