मैं अपना कार-ए-वफ़ा आज़माऊँगा फिर भी
कहाँ मैं तेरे सितम याद करने वाला हूँ
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मुझ को ना-कर्दा गुनह का मो'तरिफ़ होना पड़ा
घनी सियह ज़ुल्फ़ बदलियों सी बिला सबब मुझ में जागती है
रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
मुलाक़ातें नहीं फिर भी मुलाक़ातें
कैसे अफ़्सूँ थे वहाँ कैसे फ़साने थे उधर
वही जुनूँ की सोख़्ता-जानी वही फ़ुसूँ अफ़्सानों का
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
क़िस्सा-ए-ख़्वाब हूँ हासिल नहीं कोई मेरा
तू जो इस दुनिया की ख़ातिर अपना-आप गँवाता है
ताबिश ये भला कौन सी रुत आई है जानी
ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ
इक शहर था इक बाग़ था