ज़रा हटे तो वो मेहवर से टूट कर ही रहे
हवा ने नोचा उन्हें यूँ कि बस बिखर ही रहे
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कश्फ़
देखने में लगती थी भीगती सिमटती रात
कभी सर पे चढ़े कभी सर से गुज़रे कभी पाँव आन गिरे दरिया
सारा दिन बे-कार बैठे शाम को घर आ गए
मैं अपने वक़्त में अपनी रिदा में रहता हूँ
मैं भरी सड़कों पे भी बे-चाप चलने लग गया
पानी में भी प्यास का इतना ज़हर मिला है
पेश हर अहद को इक तेग़ का इम्काँ क्यूँ है
किसी पे बार-ए-दिगर भी निगाह कर न सके
अपने नाख़ुन अपने चेहरे पर ख़राशें दे गए
शुआएँ ऐसे मिरे जिस्म से गुज़रती गईं