जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही
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मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
मैं तुझ को बताता हूँ तक़दीर-ए-उमम क्या है
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
फ़रमान-ए-ख़ुदा
सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
एक पहाड़ और गिलहरी