ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Gulzar
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Habib Jalib
Mir Taqi Mir
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बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
ज़लाम-ए-बहर में खो कर सँभल जा
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
हर चीज़ है महव-ए-ख़ुद-नुमाई
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब