रात आई है बलाओं से रिहाई देगी
अब न दीवार न ज़ंजीर दिखाई देगी
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दिल जो टूटेगा तो इक तरफ़ा चराग़ाँ होगा
बस अब तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहुत पहलू निकलते हैं
उसे तो पास-ए-ख़ुलूस-ए-वफ़ा ज़रा भी नहीं
कब तलक यूँ धूप छाँव का तमाशा देखना
वहाँ ज़ेर-ए-बहस आते ख़त-ओ-ख़ाल ओ ख़ू-ए-ख़ूबाँ
दर्द ओ दरमाँ
कभी हो गया मयस्सर न हुआ कभी मयस्सर
इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते
बस यूँही इक वहम सा है वाक़िआ ऐसा नहीं
अजीब लुत्फ़ था नादानियों के आलम में
कैसी कैसी आयतें मस्तूर हैं नुक़्ते के बीच
'अनवर' मिरी नज़र को ये किस की नज़र लगी