हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
हाए हम अपनी चाल से भी गए
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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
ज़माने भर ने कहा 'अर्श' जो, ख़ुशी से सहा
फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं
क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया
देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर
वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए
बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा
बस यूँही तन्हा रहूँगा इस सफ़र में उम्र भर
मैं आलम-ए-इम्काँ में जिसे ढूँढ रहा हूँ
बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है