मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता
इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को
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देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी
हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूर-ए-वफ़ा है
क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ
बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है
उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
रौशनी बन के सितारों में रवाँ रहते हैं
हाँ समुंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच
पत्थर के उस बुत की कहानी
ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया
बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा