उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Gulzar
Ahmad Faraz
Anwar Masood
Wasi Shah
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(983) Peoples Rate This
हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
ज़माने भर ने कहा 'अर्श' जो, ख़ुशी से सहा
बाज़-गश्त
हाँ समुंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच
क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ
ज़िंदगी होने का दुख सहने में है
आँखों में कहीं उस के भी तूफ़ाँ तो नहीं था
आख़िर हम ने तौर पुराना छोड़ दिया
फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं
अज़ाब-ए-बे-दिली-ए-जान-ए-मुब्तला न गया
ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे
इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ