वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए
अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया
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हम कि मायूस नहीं हैं उन्हें पा ही लेंगे
हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
हाँ समुंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच
आख़िर हम ने तौर पुराना छोड़ दिया
पत्थर के उस बुत की कहानी
संग-ए-दर उस का हर इक दर पे लगा मिलता है
ज़माने भर ने कहा 'अर्श' जो, ख़ुशी से सहा
दरवाज़ा तिरे शहर का वा चाहिए मुझ को
क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ
उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ