सीने के बीच 'साक़िब' ऐसा है मरना जीना
इक याद जी उठी थी इक याद मर गई है
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ओझल हुई नज़र से बे-बाल-ओ-पर गई है
लकीर खींच के मुझ पे वो फिर मुझे देखे
नुमू की ख़ाक से उट्ठेगा फिर लहू मेरा
किस दर्जा मुनाफ़िक़ हैं सब अहल-ए-हवस 'साक़िब'
ग़ज़ल में दर्द का जादू मुझी को होना था
समेट ले गए सब रहमतें कहाँ मेहमान
बारिश कैसी जादूगर है
दिल की मौजों की तड़प मेरी सदा में आए
रस्ते की अंजान ख़ुशी है
बज़्म-ए-सुख़न को आप की दिल-गीर चल पड़े
क़ैदी रिहा हुए थे पहन कर नए लिबास