आग जो दिल में लगी है वो बुझा दी जाए

आग जो दिल में लगी है वो बुझा दी जाए

फिर कोई ताज़ा ग़ज़ल आज सुना दी जाए

ज़ीनत-ए-जिस्म बने रूह को छलनी कर दे

ऐसी हर रस्म ज़माने से मिटा दी जाए

सुनते हैं इश्क़ का बाज़ार बहुत गर्म है फिर

क़ीमत-ए-हुस्न ज़रा और बढ़ा दी जाए

इक झलक के लिए सौ बार सर-ए-बाम गया

आतिश-ए-शौक़ को कुछ और हवा दी जाए

राज़ सीने में दबा है जो सर-ए-बज़्म कहूँ

सिर्फ़ इक बार मुझे उस की रज़ा दी जाए

ज़िंदगी धूप में जलते हुए काटी जिस ने

साया मिल जाए कोई उस को दुआ दी जाए

जा-ब-जा अक्स मेरी आँखों में उभरे जिस का

उस की तस्वीर भी अब दिल से हटा दी जाए

वक़्त आजिल है सफ़र तूल है दम आँखों में

रुख़-ए-जानाँ से नक़ाब अब तो उठा दी जाए

तिश्नगी आँख की कम हो कोई सूरत निकले

पस-ए-पर्दा ही झलक काश दिखा दी जाए

मुंजमिद कोह-ए-निदा पर है तग़ाफ़ुल से तिरे

हिद्दत-ए-चश्म-ए-करम उस पे लुटा दी जाए

मुस्कुराते हुए सर सीने पे रख कर बोले

मरज़-ए-इश्क़ है लाज़िम है दवा दी जाए

ये भी मुमकिन है मगर तब कि वो ख़ुद आ के कहे

बात जो दिल को दुखाती है भुला दी जाए

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