सुना है चाँदनी-रातों में अक्सर तुम
ख़मोशी से दबे पाँव
भरी महफ़िल से उठते हो
खुले आकाश के नीचे कहीं पर बैठ जाते हो
फिर अपना हाथ हौले से बढ़ाते हो
चमकते चाँद की जानिब
कभी तो मुस्कुराते हो कभी कुछ गुनगुनाते हो
जो 'मीर'-ओ-'दर्द' की ग़ज़लें कभी हम को सुनाते थे
वही सरगोशियाँ मुझ से जो अक्सर करते रहते थे
हवा के दोश पर बैठी किरन से करने लगते हो
सुना है बे-क़रारी में
टहलते हो कभी छत पर
कभी हर अक्स में मेरा सरापा ढूँढते हो तुम
हवाओं में मिरी ख़ुशबू कभी महसूस करते हो
कभी बे आस हो कर फिर ज़मीं पर बैठ जाते हो
बहुत फ़रियाद करते हो
मुझे ही याद करते हो
मगर ये सारी बातें तो महज़ ख़्वाबों की बातें हैं
खुली जब आँख मेरी तो नज़ारा और ही देखा
कोई पैग़ाम आया था
हमारे नाम आया था
लिखा था उस में देखो ना
कि अब की चाँद जो निकला
उसे नज़दीक से देखा
उसे महसूस कर पाया
मुकम्मल पा लिया उस को जो शह-रग में मचलता था
मुबारकबाद तो दे दो वो मेरा हो गया अब की
सुना है चाँदनी-रातों में तुम भी सो नहीं पाती
तू अब की चैन से सोना कि अब मैं भी नहीं जगता
(2179) Peoples Rate This