मिले अब के तो रोए टूट कर हम
गुनाह अपनी सज़ा के रू-ब-रू था
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कम न होगी ये सरगिरानी क्या
समाअ'त के लिए इक इम्तिहाँ है
तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से
कशिश तुझ सी न थी तेरे ग़मों में
और कुछ देर ग़म नज़र में रख
जान ले ले न ज़ब्त-ए-आह कहीं
मिरे कुछ भी कहे को काटता है
हादसात अब के सफ़र में नए ढब से आए
दिल से बे-सूद और जाँ से ख़राब
मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ
हमें इस तरह ही होना था आबाद
मुस्कुराने का फ़न तो बअ'द का है