शाम उतरी है फिर अहाते में
जिस्म पर रौशनी के घाव लिए
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तिरा लहज़ा वही तलवार जैसा था
अब उजड़ने के हम न बसने के
वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में
समुंदर है कोई आँखों में शायद
हम जो टूटे हैं बता हार भला किस की हुई
बात बिगड़ी हुई बनी सी रही
हुए हम बे-सर-ओ-सामान लेकिन
मिरे कुछ भी कहे को काटता है
एक नश्शा है ख़ुद-नुमाई भी
ये किस की याद का दिल पर रफ़ू था
तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से