घटती बढ़ती रौशनियों ने मुझे समझा नहीं
मैं किसी पत्थर किसी दीवार का साया नहीं
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जब कभी होंगे तो हम माइल-ए-ग़म ही होंगे
फ़ासला
क्या क्या लोग ख़ुशी से अपनी बिकने पर तय्यार हुए
मुझे जीना नहीं आता
हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा
ना-रसा
बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
कहते कहते कुछ बदल देता है क्यूँ बातों का रुख़
तो ऐसा क्यूँ नहीं करते
ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
आहट पे कान दर पे नज़र इस तरह न थी
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है