तेज़ हवाएँ आँखों में तो रेत दुखों की भर ही गईं
जलते लम्हे रफ़्ता रफ़्ता दिल को भी झुलसाएँगे
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
तो ऐसा क्यूँ नहीं करते
अक्स हर रोज़ किसी ग़म का पड़ा करता है
रब्त हर बज़्म से टूटे तिरी महफ़िल के सिवा
दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा
ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में
तुझ में और मुझ में तअल्लुक़ है वही
घटती बढ़ती रौशनियों ने मुझे समझा नहीं
चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो
ब-हर-उनवाँ मोहब्बत को बहार-ए-ज़िंदगी कहिए
वक़्त के कटहरे में
सारे मंज़र फ़ुसूँ तमाशा हैं