ये एहतिमाम-ए-चराग़ाँ बजा सही लेकिन
सहर तो हो नहीं सकती दिए जलाने से
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वक़्त के कटहरे में
प्यार के बंधन ख़ून के रिश्ते टूट गए ख़्वाबों की तरह
वही है रंग मगर बू है कुछ लहू जैसी
बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
तुझ में और मुझ में तअल्लुक़ है वही
ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में
पता नहीं वो कौन था
फ़ासला
हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा
विसाल
तो ऐसा क्यूँ नहीं करते
जब छाई घटा लहराई धनक इक हुस्न-ए-मुकम्मल याद आया