वही है रंग मगर बू है कुछ लहू जैसी
ये अब की फ़स्ल में खिलते गुलाब कैसे हैं
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अबदियत
बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जमे कैसे अपना रंग
तेज़ हवाएँ आँखों में तो रेत दुखों की भर ही गईं
रब्त हर बज़्म से टूटे तिरी महफ़िल के सिवा
दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा
क्या क्या लोग ख़ुशी से अपनी बिकने पर तय्यार हुए
ये एहतिमाम-ए-चराग़ाँ बजा सही लेकिन
ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में
मुझे जीना नहीं आता
बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
छेड़ा ज़रा सबा ने तो गुलनार हो गए
ना-रसा