ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे
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मैं कब तन्हा हुआ था याद होगा
ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिए साए
दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है
हाथ में चाँद जहाँ आया मुक़द्दर चमका
न जी भर के देखा न कुछ बात की
पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
हम तो कुछ देर हँस भी लेते हैं
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
इक शाम के साए तले बैठे रहे वो देर तक
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में