जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हम ने लिखा कुछ भी नहीं
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बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
मैं जब सो जाऊँ इन आँखों पे अपने होंट रख देना
पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है
मिरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफ़र में
पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
ये एक पेड़ है आ इस से मिल के रो लें हम
जब तक निगार-ए-दाश्त का सीना दुखा न था
हसीं तो और हैं लेकिन कोई कहाँ तुझ सा
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
बड़े ताजिरों की सताई हुई
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मैं यूँ भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ