कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें
उदास होने का कोई सबब नहीं होता
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मुझे लगता है दिल खिंच कर चला आता है हाथों पर
मुख़ालिफ़त से मिरी शख़्सियत सँवरती है
वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
मिरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफ़र में
तुम्हारे घर के सभी रास्तों को काट गई
इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
उदासी आसमाँ है दिल मिरा कितना अकेला है
मैं जब सो जाऊँ इन आँखों पे अपने होंट रख देना
ख़ानदानी रिश्तों में अक्सर रक़ाबत है बहुत
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
बे-तहाशा सी ला-उबाली हँसी