कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिक्खा भी बदलता है
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अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मिरी नज़र में ख़ाक तेरे आइने पे गर्द है
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
चमक रही है परों में उड़ान की ख़ुशबू
मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा
शाम आँखों में आँख पानी में
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
शबनम के आँसू फूल पर ये तो वही क़िस्सा हुआ
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे