कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए
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इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
हमारे पास तो आओ बड़ा अंधेरा है
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे
मैं जिस की आँख का आँसू था उस ने क़द्र न की
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं
अजब चराग़ हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं
घर नया बर्तन नए कपड़े नए
शबनम के आँसू फूल पर ये तो वही क़िस्सा हुआ
इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी