कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते
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कहाँ आँसुओं की ये सौग़ात होगी
होंटों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते
वो अपने घर चला गया अफ़्सोस मत करो
कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें
नाम पानी पे लिखने से क्या फ़ाएदा
जी बहुत चाहता है सच बोलें
मुझे लगता है दिल खिंच कर चला आता है हाथों पर
ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिए साए
दुश्मनी का सफ़र इक क़दम दो क़दम
तुम्हारे घर के सभी रास्तों को काट गई
बहुत दिनों से मिरे साथ थी मगर कल शाम
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है