ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
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कमरे वीराँ आँगन ख़ाली फिर ये कैसी आवाज़ें
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
पत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी है
रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
कोई लश्कर कि धड़कते हुए ग़म आते हैं
उदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैं
फूल बरसे कहीं शबनम कहीं गौहर बरसे
इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
मान मौसम का कहा छाई घटा जाम उठा