मैं यूँ भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
कोई मासूम क्यूँ मेरे लिए बदनाम हो जाए
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पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है
कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
अगर यक़ीं नहीं आता तो आज़माए मुझे
फूलों में ग़ज़ल रखना ये रात की रानी है
कोई लश्कर कि धड़कते हुए ग़म आते हैं
मिरी ग़ज़ल की तरह उस की भी हुकूमत है
जब सहर चुप हो हँसा लो हम को
न जी भर के देखा न कुछ बात की
ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ
शो'ला-ए-गुल गुलाब शो'ला क्या
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में